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भाषा और भावनाएं - वास्तविक जीवन से प्रेरित एक संक्षिप्त कविता

भाषा की जरूरत तो सिर्फ़ शब्दों को कहने के लिए थी।
भावनाओं को समझने के लिए तो एक दिल ही काफ़ी था।
वो अपनी भाषा मैं कहते चले गए, और हमारा दिल उनकी भावनाओं को पड़ता चला गया।
सोच का खुलासा तो तब हुआ, जब वो बोले, तुम मेरी भाषा नहीं समझती।
और हमने कहा, लेकिन आपकी भावनाएँ तो हमने पड़ ली है।
हमारा इतना कहना था, कि वातावरण मैं सन्नाटा सा छा गया।
तुम और हम एकभाषी नहीं है,
उनका बस इतना कहना ही काफी था,
अब हमने भी ठान ली, उनकी भाषा सीखने की।
पर समय के साथ लगा, अरे इसकी तो जरूरत ही नहीं थी।
हमे कोन से अपने शब्द उन तक पहुँचाने थे।
जब भावनाओं की आवाज़ उनके दिल तक पहुँची, तो भाषा का महत्व खत्म सा लगा।
पर अचानक वो बोल उठे, अरे कहोगी नहीं तो हम समझेंगे कैसे।
उनके ऐसा बोलते ही, हमें दिल का महत्व भीना सा लगा।
अब दिल और भाषा की तकरार मैं हम एक बात जान गये।
भाषा और भावनाओं का संबंध बहुत गहरा होता है।
बचपन से जो निज भाषा हमे माँ ने सिखायी थी, वो भावनाओं की अभिव्यक्ति ही तो थी।
बस बदलते समय के साथ हम शब्दों के मोल को भूलते चले गए।
जब हमने इन मोती रूपी शब्दों को बदला, तो दोनों की भावनाओं को इकरार होता पाया।
इस भाषा रूपी माला मैं जब हमने आदर और संवेदनशीलता को पिरोया, तो परायो को अपना बना नये रिश्तों को राहत दी।

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DeepikaaJoshi

Associate Professor, SJIM Bangalore, PhD NIT Jaipur